महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझने वाली सामाजिक सोच को दिखाती "हमारे बारह"- मूवी रिव्यू



एमपी नाउ डेस्क



Film Review Hamare Baarah: बीते 21 जून मे तमाम कानूनी लड़ाई और विवादों के बाद अन्नू कपूर अभिनीत फिल्म हमारे बारह सिनेमाघरों में रिलीज हो गई, फ़िल्म कई गंभीर मुद्दों को अपने अंदर समेटे हुए हैं। जैसे बढ़ती जनसंख्या, महिलाओं को पुरुषों के सामने दोयम दर्जे का सामन या उपभोग की वस्तु समझना आदि, अब इतने बेहतरीन और सामाजिक मुद्दे में बनी फ़िल्म में विवाद क्यों उठा, क्यों फ़िल्म को लेकर कुछ समीक्षक एजेंडा और विशेष समुदाय को नीचा दिखाने या टारगेट करने जैसी बातों से प्रेरित फिल्म बता रहें है, यह समझ से परे है।

अब किसी एक समुदाय में कोई कुरीति या किसी विषय को लेकर विकार या समझ का अभाव है, तो उसके किरदार उसी समुदाय से प्रेरित होंगे न तो फिर यह फ़िल्म कैसे किसी समाज या धर्म को निशाना बना रही है, ये तो वह कथित लोग ही जानते है।


पहले भी कई ऐसी फिल्में बनी है, जो किसी विशेष समुदाय में वर्षो से चली आ रही कुरीतियों को दिखाती है, उसके अच्छे और बुरे पहलू को समाने लाती है, चाहे फिर वह बाल विवाह, सत्ती प्रथा और अन्य कई प्रकार के विवादित और वर्षो पुराने मुद्दे रहें हो।

आगे भी ऐसे मुद्दों में फ़िल्म बनेगी, समझदार व्यक्ति इससे शिक्षा लेगा और जो फ़िल्म के अन्नू कपूर जैसा होगा वह इसे धर्म से जोड़ देगा। सती प्रथा हिंदू धर्म में एक कुरीति का प्रतीक था कई लोग इसमें धर्म का सहारा लेकर उसे उचित समझाते थे।


अब ऐसे विषयों में फिल्म निर्मित होगी तो, उसकी कहानी और किरदार सब हिंदू धर्म से प्रेरित होंगे, अब ऐसे विषयों को लेकर किसी और धर्म को दिखाना कहां तक उचित होगा। 


वैसे ही एक फिल्म हमारे बारह का निर्माण किया गया है, इसमें एक धर्म विशेष में वर्षो से चली आ रही कुरीतियों को दिखाया गया है, शिक्षा महिला को लेकर सोच जैसे विषयों को दर्शाया गया है, फ़िल्म में दिखाए गए विषय ऐसा कोई अनोखा विषय या लेखक के दिमाग की उपज नहीं है। मूवी रिव्यू जेएनयू

फ़िल्म में वही विषय दिखाया गया है, जो वर्षो से इस देश में इस प्रकार की कई प्रकार की घटनाएं सामने आती रही है। अब यह फिल्म एक सवाल उठाती है, आपकों समझ आता है तो ठीक है नहीं तो वर्षो से जो चला आ रहा है, आगे भी चलता रहेगा।

फिल्म की कहानी 

फिल्म की कहानी शुरू होती है, एक रूढ़िवादी मुस्लिम व्यक्ति खान साहब (अन्‍नू कपूर) के गर्व से कि वह 65 साल की उम्र में भी बच्चें पैदा करने की क्षमता रखते है, 11 बच्चे उनके हो चूके है, पर जब उनके घर में जनगणना वाले व्यक्ति आते है, तो वह अपने परिवार के सदस्यों के बारे में जानकारी देते हुए एक और सदस्य को बढ़ाने की बात बड़े गर्व के साथ कहते है, जबकि उनके जो अन्य बच्चें है उन्हे ठीक प्रकार से परवरिश शिक्षा और अन्य चीजों का आभाव है, उनकी पहली पत्नी 6 बच्चों को जन्म देने के बाद मर चुकी है, दुसरी बीबी से 5 बच्चे हो चुके है वह छटे बच्चें की तैयारी और आस लगाए बैठे है, जबकि डॉक्टरों ने साफ़ मना किया है उनकी बेगम अब बच्चें को जन्म देती है तो वह भी मर जायेगी।


डॉक्टरों के समझाने के बाद भी खान साहब (अनु कपूर) अपनी बेगम का गर्भपात करवाने को तैयार नहीं है क्योंकि उनका मजहब इस बात की इजाज़त नहीं देता, ऐसी स्थिति में खान साहब की पहली बेगम की बेटी अल्फिया (अदिति भटपहरी) जो इन्ही कारणों की वजह से अपनी मां को खो चुकी है, वह अपनी सौतेली मां को इस प्रकार मरने नही देना चाहती है, इस वजह से अपने अबू के खिलाफ़ और अपनी दूसरी अम्मी रुखसार (इशलीन प्रसाद) का गर्भपात करवाने के लिए कोर्ट मे मुकदमा दायर कर देती है, क्या अल्फिया अब अपनी दूसरी अम्मी को इस प्रकार मरने से बचा पाएंगी, यह खान साहब की जीत होगी यह दोनों ही हार जाएंगे यह जानने के लिए फ़िल्म आपको देखनी होगी।

फिल्म समीक्षा: हर्षित अग्रवाल 

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