एमपी नाउ डेस्क
डॉ ईशान पुरोहित का नया काव्य संग्रह "बाकी हु अभी" विनसर पब्लिकेशन देहरादून से प्रकाशित हो चुका है उक्त काव्य संग्रह की बड़े ही रोचक मार्मिक शब्दों से समीक्षा की है सचिन देव शर्मा ने पढ़े......
डॉ ईशान पुरोहित जिन्हें मैं उत्तराखंड के कुमार विश्वास की संज्ञा देता हूँ उनका नया काव्य संग्रह 'बाकी हूँ अभी'
विनसर पब्लिकेशन देहरादून से प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं से पहले बात करते हैं डॉ साब के बारे में। डॉ ईशान बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। पेशे से वो देश में अक्षय
ऊर्जा के प्रमुख विशेषज्ञों में गिने जाते हैं और आजकल विश्व बैंक में कार्यरत हैं। सहदयता उनमें कूट कूट कर भरी है, कवि हृदय होना जिसका प्रमाण है और गढ़वाल उत्तराखंड के चोपड़ा क्षेत्र में उनके द्वारा स्कूली बच्चों की पढ़ाई को लेकर किए गए प्रयासों को कौन नहीं जानता। विषय राजनैतिक हो या सामाजिक, उनके तर्क अकाट्य होते हैं। सादा जीवन उच्च विचार उनकी पहचान है। सम्पन्न होने के बावज़ुद पर्यावरण संरक्षण हेतु आज तक वाहन नहीं खरीदा और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ही प्रयोग करते हैं। लगभग दो दशकों से दिल्ली में रहते हैं लेकिन अपनी उत्तराखंडी पहचान को खोने नहीं दिया।
अब बात करते हैं कविताओं की। उनकी कविताएं मानव मन व उसके अंतर्द्धद, प्रकृति व प्रेम, सामाजिकपरिस्थितियों व समसामयिक मुद्दों को बहुत प्रभावी ढंग सेउठाती हैं। उनकी कविताओं की खास बात ये है कि आप उनकी कविताओं के आगोश में समाते चले जाते हैं और आप को पता ही नहीं चलता। वर्चुअल रियलिटी गेम कीतरह ही उनकी कविताएँ आपको दूसरी दुनिया में ले चलती हैं और आप उस दुनिया मे उतार चढ़ाव, विस्मितता,एकाग्रता, स्वच्छेदता, आनंद पाते हैं और कविता पूर्ण होनेपर वर्चुअल रियलिटी जैसा ही आभास होता है कि काशथोड़ा और चलता। 'बसग्यली बौला' नामक उनकी कविता हिंदी के साथ साथ क्षेत्रीय भाषाओं व बोलियों को साथ लेकर चलने की क़वायद है जो आज की जरूरत है। और मैं क्या कहूँ डॉ ईशान की कविताओं के बारे में, उनकी कविताएँ समीक्षा से परे लगती हैं। कुछ कविताओं की पंक्तियाँ लिख रहा हूँ। आप ख़ुद पढ़ कर फैसला करें। आशा
है आपको आनंद आएगा।
कुछ शाम की ढलन में, रातों के बाँकपन में
सुबहों की खुमारी से, किरणों के आचमन में
साहिल से दूर होती, लहरों की अंजुमन में
स्वप्नों की देहरी से, अवसान की चुभन में
फूलों की पंखुड़ी पर, मधु ओस की जलन में
तिनकों सी सिमट होकर, घोंसलों के सृजन में
मेरी आवारगी बता किसमें बाकी हूँ अभी।
मुझसे मायूस न हो तुझमें बाकी हूँ अभी।
सजायें साँझ का आँचल उजालों के कंदीलों से
घुली परछाइयां छु लें ठहरती सुप्त झीलों से
समय-शिला के अभिलेखों पर ये अफसाना भी शामिल हो।
धूप-चाँदनी की सीमा में दीप जलाना भी शामिल हो।
जब देहरी पर छोटे बच्चे पीले फ़ूल बिछा जायेंगे
रंगों के शर्मीले मौसम आते-आते आ जाएंगे
मन आवारा मेघ सा, खोज रहा आकाश
कुछ बूँदों मैं थाहता, सागर का आभाष।
साभार
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